कविता तुम मेरी साथी सी - कविता - मोहित त्रिपाठी

कविता तुम मेरी साथी सी 
संग तेल दिया तुम बाती सी, 
भर कर भावों से मेरा मन 
ज्योतित जीवन का हर क्षण। 
कविता तुम मेरी साथी सी 
अयोध्या मथुरा काशी सी, 
छंदबद्ध हुई मर्यादा में 
आनंद मगन हर बाधा में। 
पूर्ण सभी अभिलाषा सी 
प्रस्फुटित नयी जिज्ञासा सी, 
ओ मेरे बचपन की सखी 
कविता तुम मेरी साथी सी। 
तुमने मेरा बचपन देखा 
टूटी लेखनी से लिखते देखा, 
मेरी पहली कविताओं के 
उन पन्नों को खोते देखा। 
तब मैं तुम्हे सँजो न पाता था 
औरों से बचा न पाता था, 
पर अब तुम ख़ूब सँवरती हो 
कभी बनती कभी बिगड़ती हो। 
कविता तुम मेरी साथी सी 
इतने रूप बदलती हो, 
रूप रंग का ले सहारा 
मुझे इतना तंग क्यों करती हो? 
जो रूठ गया तो कह देता हूँ 
क़लम नहीं मैं थामूँगा, 
ना ही तुमसे साथ तुम्हारा 
मैं जीवन में कभी माँगूँगा। 
कविता तुम मेरी साथी सी 
जब-जब इस जग से आहत होकर, 
मैं आया हूँ तुमको अपने मन के 
भीतर अंकुरित होता पाया हूँ। 
जब जीवन के आल्हादित क्षण 
में हृदय मेरा पुलकित होता, 
तुमसे उस सुख के बँटवारे बिन 
हूँ नहीं कभी भी मैं सोता। 
कविता तुम मेरी साथी सी 
मन देश में रहती प्रवासी सी, 
तुम्हारा अपना देश कौन सा 
और कौन सा भेष मूल है। 
जो आ जाती इतनी झट-पट 
हर बार तुम मेरी साथी सी, 
कविता तुम मेरी साथी सी 
संग तेल दिया तुम बाती सी। 

मोहित त्रिपाठी - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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