चलो प्रेम का दिया जलाएँ - कविता - रमाकान्त चौधरी

नफ़रत का अँधियार मिटाएँ, 
चलो प्रेम का दिया जलाएँ। 
 
आग स्वार्थ की लगी हुई है, 
संवेदना मरी हुई है। 
कोई किसी का हाल न पूछे, 
बेगैरत की हवा चली है। 
आओ मिलकर आग बुझाएँ, 
चलो प्रेम का दिया जलाएँ। 

मानव, मानव का दुश्मन है, 
खोता जाता अपनापन है। 
कौन है अपना कौन पराया, 
उलझन में सारा जीवन है। 
आओ सब उलझन सुलझाएँ, 
चलो प्रेम का दिया जलाएँ। 

जिसमें बीता सारा बचपन, 
बँटता जाता वो ही आँगन। 
एक ही घर में कई चूल्हे हैं, 
रिश्तों में है ऐसी टूटन। 
आओ हम रिश्तों को बचाएँ, 
चलो प्रेम का दिया जलाएँ। 

धन जीवन आधार बना है, 
कब इस बिन संसार चला है। 
जीते मरते यह उपयोगी, 
इसने सबको ख़ूब छला है। 
धन के आगे न प्रीत भुलाएँ, 
चलो प्रेम का दिया जलाएँ। 

जाति धर्म में बँटे न कोई, 
सत्य की राह से हटे न कोई। 
पूजें अपने इष्ट सभी, 
जंगल जैसे कटे न कोई। 
इक दूजे को गले लगाएँ, 
चलो प्रेम का दिया जलाएँ। 

नफ़रत का अँधियार मिटाएँ, 
चलो प्रेम का दिया जलाएँ। 

रमाकांत चौधरी - लखीमपुर खीरी (उत्तर प्रदेश)

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