वसंत - कविता - पशुपतिनाथ प्रसाद

पतझड़ का अब हो रहा अंत,
अब छटा बिखेर है रहा वसंत।

जो नंगे थे सब पेड़
सब्ज़ हरियाली पाए,
कोयल ने खोले होंठ 
भ्रमण के जी ललचाए।

मदमस्त दिशाएँ झूम रही
चित्ररंगी बनकर,
आम्र तरू अब गमक रहे 
मंजरियों से लदकर।

दिन भर के कर्मो से थककर
वे नभपथ गामी,
अब लौट रहे हैं घर को वे
किरणों के स्वामी।

रंगों की झोली बांध गुलाल में
रंगे नहाए,
पश्चिमी क्षितिज पर सरक रहे
अपलक भरमाए।

नभ आनन बना है मधुबाला,
तारे बिंदी बन आतें हैं,
शशी बन टिकुला मन मोद भरे 
जब बादल पट हट जाते हैं।

चूड़ी के झन मृदु झन झन झन,
खनका कंगन नव गोरी के,
आनन आभा प्रकाश किया
फूल मंद हुआ सब तोरी के।

नीड़ में अलसाए खग विहंग,
क्रीड़ा करते हमजोली संग,
फिर निद्रा में होता प्रभात,
फिर वही बात रे वही बात।

बिरहन कहती पापी वसंत,
सधवा कहती रस रबड़ी है,
तरुणी कहती तू फिर आना,
विधवा मन की यह घुमड़ी है।

पशुपतिनाथ प्रसाद - बेतिया (बिहार)

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