ज़िंदगी का फ़लसफ़ा - कविता - सुनील माहेश्वरी

करी थी हमने भी कोशिश, 
ज़िंदगी को समझने की,
पर असल बात तब जानी,
जब अपने ही छोड़ जाने लगे,
असल दुःख भी तभी हुआ, 
और असल सुख भी तभी हुआ,
दुःख इसलिए हुआ कि,
अपनों ने ठुकराया पर यक़ीनन,
सुख इसलिए हुआ कि,
लोगों की सच्ची पहचान हो गई,
अब आत्मविश्वास टूटकर भी मज़बूत था,
कर रहा था मन सब कुछ हुआ जैसे सुलझन,
डोर पतंग की कमज़ोर सही,
पर हवा के रुख से नही डरी कहीं,
उड़ना था उसे आसमान में,
जो रोके उसे ऐसी किसी में कोई बात नहीं,
लहराते लड़खड़ाते वो मंज़िल पा ही लेती है,
बेसब्र मन को भी जैसे धड़कन मिल ही जाती है,
करो वही यारो जो दिल कहे, 
क्योंकि दिल कभी ग़लत नहीं होता,
और हौसला जो टूटे,
वो अडिग नहीं होता,
पा ही लोगे मंज़िल अपनी एक दिन,
क्योंकि ज़माना बस सताता है,
जो टूटे दिल को बहलाता है,
पर असल ग़म को वो,
फ़िल्मी ही जताता है।

सुनील माहेश्वरी - दिल्ली

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