जब भी एक बूँद निकलती है
भला वह क्या जाने ज़मीन पर
जाकर वह किस से मिलती है?
फिर भी कर्म के पथ पर चलकर
वह नदी, पोखर, तालाब, कीचड़,
नाली, पपीहा, सीपी जिसके भी
जीवन संग सिमटती है
उसी को अपना भाग्य मानकर
मनोयोग से उसके संग
हर पल ही लिपटती है।
नहीं सोचती कीचड़ संग वह
क्या पाएगी पपीहा की चोंच में
फँस कर क्या किसी को
याद आएगी।
नहीं विरह में दूर है जाती,
अपना कर्म है करती जाती,
सीपी को भी मोती बनाकर,
हम सब से बस यह कहती जाती,
मत सोचो क्यों आए हो
कैसे आए हो
मिला है जीवन मानव का जब,
कर्म के पथ पर बस
चलते ही जाओ,
जिसके कारण जो अर्थ लिए हो
उसको हर पल जीते जाओ,
यही अर्थ है तेरे जीवन का,
यही अर्थ है मेरे जीवन का।
भाग्य, प्रारब्ध की
बात को छोड़ो बस
कर्म के पथ पर चलते जाओ।
चलते जाओ चलते जाओ।
एक बूँद कब है यह
जान भी पाती?
आख़िर ज़मीन पर वह,
किसके ख़ातिर आती?
डॉ॰ आलोक चांटिया - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)