कौवा और कोयल - कविता - नंदनी खरे

यह कैसी है सोच यहाँ की
कौवा कहाँ का कोयल कहाँ की,
कोयल काली काला कौवा 
क्यों लोगों को अंतर ही भाया,
कोयल को दाना देकर बुलाया 
और कोई को दाने से भगाया।

सोच को सोचकर है हैरानी,
क्या कौए का घर में आना
होता होगा अपशगुन,
जाने क्यों ऐसे नियम बनाते 
हम कोयल से मीठा सुनते,
और बात खरी कौए को सुनाते।

जब कौवा कड़वा सुनता है
तब कड़वा तो बोलेगा ही,
सुनने से पहले खरी-खोटी
शायद रहा होगा बताते,
दे दो रोटी दे दो रोटी 
की भूखी आवाज़ सुनाते,
रोटी क्या तुम दोगे बनाके।

कोयल जब भी आती है
दुनिया यह मुस्काती है,
सब को ख़ुश देखकर कोयल
गीत ख़ुशी के गाती है।

नंदनी खरे - जुन्नारदेव, जमकुंडा (मध्य प्रदेश)

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