काशी नगरी की पहली बारिश - कविता - नीलम गुप्ता

काशी नगरी की इस पहली बारिश ने
मुझे अपने गाँव की बारिश की याद दिलाई।
यूँ बादल का गरजना और बिजली का तड़कना
मेरे मानस पटल पर सहसा
ग्रामीण वर्षा की यादों को जीवित कर गई।
काशी की पावन धरा पर वर्षा रूपी 
अमृत की बूँदों का टपकना, ईश्वरीय वरदान है।
बाबा विश्वनाथ की नगरी और महामना का आशीर्वाद।
बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की रौनक 
किसी स्वर्ग धरा से कम नहीं, लेकिन 
काशी नगरी की इस पहली बारिश के कारण
मेरे हृदय रूपी समुद्र में
लहरें रूपी ग्रामीण यादों का सैलाब उमड़ने लगा
और मेरा हृदय उन यादों में, डुबने एवं उतरने लगा।
यादें भी क्या ख़ूब होती हैं?
जिन्हें भूलकर भी नहीं भुलाया जा सकता,
वे हमारे मन के किसी कोने में छुपी होती हैं।
जिस प्रकार हवा के झोंको से,
अलसाई हुई बालियाँ जग जाती हैं, ठीक उसी तरह।
रिमझिम-रिमझिम बारिश की बौछार
जैसे सावन की फुहार हो।
घाटों की शोभा जैसे स्वर्ग का सुकून देती हो।
ज़िन्दगी की इन ख़ूबसूरत बहारों में
जी भर कर जी लेने में क्या बुराई है? 
क्या पता? ये बहारें कल हो ना हो 
क्योंकि इस जीवन का भी तो कुछ भरोसा नहीं,
यह तो बुलबुलों का संसार है।
कब इसकी हस्ती इस संसार रूपी समुद्र में
विलीन हो जाए, भला ये किसको पता है यहाँ?
इसीलिए तो कहा गया है -
क्षण भर की ज़िन्दगानी है और बाक़ी पानी-पानी है।

नीलम गुप्ता - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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