सफ़र ज़िंदगी का - कविता - सुनील माहेश्वरी

सफ़र ज़िंदगी का,
थोड़ा कठिन होता है,
मगर समझने के लिए,
एक सबक़ होता है।
यात्राएँ तो एक जगह बदलाव है,
पर धूप से ओझल दिखती 
यही तो एक छाँव है।
कभी नरमाई सी अंतरा,
कभी उठती वो हिलोर है,
तो कभी हो नीरव प्रतीत,
कभी चंचलता की डोर है।
पलायन वक्त कर गया,
हम अभी भी ख़ामोश हैं,
वो इंसानियत ना सीखे,
ये अदब नहीं ना आग़ोश है।
वक्त भी करवट ले रहा है,
अपनी क्रमिक रफ़्तार से,
मत कुंठित कर ख़्याल अपने,
जीवन के प्रतिकार से।
उन्मुक्त गगन के पंछी से,
कर थोड़ी पहचान ज़रा,
हौसलों से ऊँचे फिरे जगत में,
जैसे आभा संग टकराई धरा।

सुनील माहेश्वरी - दिल्ली

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