माँ - कविता - भुवनेश नौडियाल

माँ के प्रेम से सिंचित होकर,
इस जगत को जान पाया।
अमृत दूध धारा से,
तूने मुझको है पाला।
प्रणिपात है देव को,
उसने रूप अपना दिया।
इस जगत को जानने का,
एक मौक़ा मुझे दिया।
अबोध था मैं,
फिर भी ज्ञान का संचार किया।
चरण में खड़े होने का,
हुनर तूने मुझे दिया।
धन्यवाद है ईश्वर को,
माँ प्रेम रस मैंने पिया।
एकांत बैठे हुए भी,
नाम तेरा हर बार लिया।
माँ रूप में मैंने तुम्हें,
कितने जन्मों तक है पाया।
कितने जन्मों का साथ है तेरा,
ये अब तक जा न पाया।
स्मरण जब तेरी हो आती,
टिप-टिप जल धारा बह जाती।
दुखी मन मेरा कहीं खो जाता, 
मैं स्मृतियों में बह जाता।

भुवनेश नौडियाल - पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)

Join Whatsapp Channel



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos