मौन के लाभ हानि - लेख - सुधीर श्रीवास्तव

मौन की प्रवृत्ति आदि काल से चली आ रही है। प्रश्न मौन होने का नहीं समय, काल, परिस्थितियों के अनुरूप मौन के प्रतिउत्तर का है। सबको पता है कि जिस मौन को बहुधा श्रेष्ठ ही माना जाता, विवादों से बचने का सुगम, सुलभ विकल्प कहा जाता है, उसी मौन का परिणाम महाभारत के रूप में सर्वविदित है। अगर ज़िम्मेदार और दायित्व वाले मौन न रह गया होते तो महाभारत का युद्ध भी न हुआ होता। परंतु भरी सभा में मौन होने के सबके अपने अपने तर्क थे। परिणाम महाभारत के रूप में सामने आया।भगवान राम ने अपने पिता के वचनों का मान रखते हुए लगभग मौन रहकर ही वनगमन किया। फलस्वरूप राम रावण युद्ध के रूप में सामने आया। अब इसे हम किस रूप में महसूस करते हैं ये हमारे विवेक पर निर्भर है।

कलयुग में मौन रहना भी किसी कला से कम नहीं है। याद कीजिए केन्द्र में कांग्रेसी प्रधानमंत्री स्व॰ श्री पी॰वी॰
नरसिंहाराव की अल्पमत सरकार कैसे राव के मौन की चाणक्य नीति के बीच अंत में बहुमत की सरकार बन गई।स्व॰ अटल जी ने अपनी मौन साधना के हथियार के दम पर बीस से अधिक दलों की गठबंधन सरकार का बखूबी संचालन किया। इसी मौन की ही बदौलत डॉ॰ मनमोहन सिंह दस साल तक प्रधानमंत्री रहे।
आज वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी भी बहुमत में होते हुए भी गठबंधन कि ही नेतृत्व कर रहे हैं। दावा है कि कभी उन्होंने अपने गठबंधन वाले किसी भी सहयोगी दल या उसके नेता पर कोई प्रतिकूल टिप्पणी की हो।
हमारे भारतीय समाज में मौन को सबसे सरल और घातक हथियार भी माना जाता है।अनेक परिवारों में अपने इसी हथियार के दम पर परिवार में सामंजस्य स्थापित कर विखंडन से परिवार को महफ़ूज़ रखने या बिखरने की नींव रखने में नीतियाँ सफल हो रही हैं। लेकिन यही मौन अनेक बार तमाम अप्रत्याशित घटनाओं का कारक भी बन जाता है। जिसकी परिणीत जन धन की हानि के रूप में सामने आ जाती है।

मौन को लेकर कोई निश्चित धारणा नहीं है, बल्कि सबके अपने अपने स्वार्थ भी हैं। इंसान मौन में भी लाभ हानि का आंकलन कर ही अधिकांशतः इसका प्रयोग बड़ी ही सावधानी से करता है।
संक्षेप में अगर कहा जाए- सिक्के के दो पहलुओं की तरह मौन के भी जहाँ फ़ायदे है तो नुक़सान भी कम नहीं है। अतएव मौन को लेकर किसी निश्चित धारणा पर पहुँचना टेढ़ी खीर ही है।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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