बूँदें बारिश की नन्हीं गोलमटोल
चंचल सी
गिरती पत्तियों पर
जैसे जगा रही हो
थपथपाती सोए पेड़ को
और ख़ुद लुढ़ककर
ज़मीन पर पसर जाती
यूँ हीं देखते देखते
बेजान सी
थकी हारी।
प्रफुल्लित हरित घास
देखती तमाशा
पर कुछ कहना चाहती
बूँदों से,
सुनाना चाहती गाथा
जीवन की
आज की
कल की
ज़माने की
किंतु कहाँ?
किसको?
बूँदें स्वत: ही गायब हो जाती
बिना कुछ सुनें।
अशोक बाबू माहौर - मुरैना (मध्यप्रदेश)