धरती माँ दिखला रही, सबको अपना रूप।
सावन में बरसात का, होता यही स्वरूप।।
नदियों की गति तीव्र है, जाओ कभी न पास।
जाने कितने बह गए, थे जो अपने ख़ास।।
धरती माँ पुकार रही, वृक्ष हैं मेरे प्राण।
सघन-वन-उपवन से ही, होंगे मेरे त्राण।।
हरी-भरी धरती सजी, खिले तरह के फूल।
चहक रहे नभ में पक्षी, है ऋतु यह अनुकूल।।
पेड़ धरा के कट रहे, धरती रोई आज।
पर्वत भी अब मौन है, कौन बचाए लाज।।
दीपा पाण्डेय - चम्पावत (उत्तराखंड)