साथ-साथ हैं - लघुकथा - सुषमा दीक्षित शुक्ला

दीपू एक ऐसा बालक था जो सेठ मानिकचन्द अग्रवाल को वर्षो पूर्व सड़क पर लावारिस और विकल अवस्था रोता बिलखता मिला था। तब उसकी आयु लगभग पाँच छः वर्ष प्रतीत हो रही थी। वह बिचारा अपने नाम दीपू के सिवा कुछ ठीक से नही बता पा रहा था।
सेठ जी उसे पुलिस के हवाले करने ले गए, परन्तु पुलिस ने सेठ जी को ज़िम्मेदार नागरिक मानते हुए, बच्चे को तब तक सेठ जी संरक्षण में रखने का आग्रह किया जब तक उसका असली वारिस तलाशते हुए न पहुँचे।

कई दिन, महीने और वर्ष बीत गए, पुलिस और सेठ जी ने ख़ुद अख़बारों आदि में दीपू के लिए इश्तिहार दिए कि शायद उसके अपने ले जाएँ, परन्तु कोई नही आया।
अंततः सेठ एवम सेठानी ने दीपू को बहुत प्यार दुलार से रखा। सेठ जी का इकलौता बेटा रोहन भी अपने हमउम्र दीपू का अच्छा दोस्त अच्छा भाई बन गया था और सेठ सेठानी ने दीपू को न केवल प्यार, ममता और वात्सल्य दिया बल्कि अपना नाम भी दिया। दोनो बच्चो को समभाव से पालन पोषण किया।
दीपू का नाम भी स्कूल में लिखा दिया गया और दोनों भाई साथ-साथ खेलते पढ़ते कब बड़े हो गए, समय का पता ही न चला।

आज न्यूरो सर्जन डॉ. दीपक अग्रवाल उर्फ़ दीपू के नए अस्पताल का उदघाटन है और इंजीनियर रोहन अग्रवाल  मेहमानों का सारा प्रबन्धन देख रहे हैं।
आज सेठ मानिकचन्द अग्रवाल सपत्नीक बहुत ख़ुश हैं, उनके दोनों बेटे बड़े प्यार से साथ-साथ हैं और स्वावलम्बी व नेकदिल होकर शहर में उनका नाम रोशन कर रहे हैं।

सुषमा दीक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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