बेचैन आँखें - कविता - नीरज सिंह कर्दम

बेचैन आँखें क्या देख रही है?

वो सब
जो शायद आप नहीं
देख पा रहे हैं!

जातिवाद के नारे
धर्म ही सर्वोपरि है
कहकर हाथों में तलवारें
लहराते हुए लोग!

मंदिर मस्जिद के लिए
एक दूसरे का रक्त बहाते लोग।

खुलकर जीने की
आज़ादी माँगती नारी,
अपनी सुरक्षा माँगती नारी।

छोटी छोटी बच्चियों की चीख़ें,
जो कान से होते हुए
ह्रदय को घायल कर जाती है।

तप्ती धूप में
सड़कों पर रोज़गार के लिए
युवाओं का संघर्ष।

आँखें जो ये सब देखकर
आज बेचैन हो रही है।

अब आँखों से पानी नहीं
रक्त टपकता है, आँसू बनकर।

बेचैन हो उठती है आँखें
जब एक बालक को
भूख से तड़पते देखती है।

एक स्त्री जो अपने फटे कपड़ों से
अपने शरीर को ढकने की
कोशिश करती है, और कुछ जानवरों की
नज़रें उसपर गढ़ती है।

हाँ ये सब देखकर आज
बेचैन हो रही है आँखें।

नीरज सिंह कर्दम - असावर, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश)

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