मज़दूर - कविता - कुमुद शर्मा "काशवी"

मैं हारा नहीं...
हालातों का मारा हूँ
जो डरता नहीं मेहनत से कभी,
वो मज़दूर प्यारा हूँ।

चाहे तपती धूप हो,
या हो राह पथरीली
कर्मपथ है जीवन मेरा,
पीछे न हटूँगा संघर्ष से
आज़मालो चाहे हर घडी़!

मैं थका नहीं हूँ...
बस टूट चुका हूँ, अंतर्मन से,
देख छलावे के व्यापार को।
कौन समझे पीर पराई...
जाके पैर न फटी बिवाई!

मेरी जीविका का आधार,
खेती बना अब व्यापार।
कुछ मौक़ापरस्त
तलबगारो ने
जकड़ लिया
मोल भाव के ज़ंजीरों में,
अच्छी फ़सल उपजाओगे,
दोगुने दाम पाओगे...
लालच क्या घर कर गया,
अपने ही खेतों में,
बँधुआ मैं बन गया!

मैं मज़दूर हूँ.....
पर मजबूर फिर भी नहीं,
जब तलक ताकत है मेहनत की
हाथ न फैलाऊँगा ये है यकीं,
मैं ज़िंदा हूँ, अभी मरा नहीं हूँ,
सिंचूँगा मरुस्थल भी पसीने से।

कुमुद शर्मा "काशवी" - गुवाहाटी (असम)

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