परी - कविता - आराधना प्रियदर्शनी

उसकी काया संग-ए-मरमर सी,
जुल्फ़ घने हैं बादल से।
वह मदमस्त बनाती है सबको,
रंग-बिरंगे आँचल से।

उसकी आँखें है हिरनी सी,
कोयल जैसी उसकी वाणी।
उसकी हर प्रतिक्रिया मनोरम,
अपनी वह जानी पहचानी।

सोती कमलों की पंखुड़ियों में,
उठती है रमणीय गुलाब में।
मिलन तो ऐसे मुमकिन नहीं पर,
मिलती है नित ख़्वाब में।

उसकी हँसी है बिजली सी,
अलग उसकी है जादूगरी।
फूल कहूँ, बहार कहूँ, 
अप्सरा कहूँ या कहूँ परी।

उसका अपूर्व सौंदर्य है,
नहीं है वह ईश्वर से दूर।
परी ही कहते होंगे उसको,
या शायद जन्नत की हूर।

आराधना प्रियदर्शनी - बेंगलुरु (कर्नाटक)

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