बाल विवाह: एक अभिशाप - कविता - शैलजा शर्मा

नारी अपने आईने को,
ना बनने देना ख़ुद जैसा।
जो होता रहा साथ तेरे,
ना होने देना अब वैसा।।

ना बनने दो उसको कठपुतली,
तुम काजल बिंदी तिलक लगा कर।
सात इंची साड़ी लिपटा,
बचपन में गौना करवा कर।।

नाशिनास नाज़ुक कंधों पर,
डालो ना तुम ज़िम्मेदारी।
उसके दिन ये खेल खिलौनों के,
ना उसमें अभी समझदारी।।

उम्र उसकी पंद्रह की है,
ना समझो उसको पचपन की।
लवों की मुस्कान ना छीनों,
करने दो भूलें बचपन की।।

जीने दो उसको बचपन,
निज सपनों में उड़ने दो।
पढ़ा लिखा क़ाबिल बना,
उसे सही राह में मुड़ने दो।।

इन उन्मुक्त परींदो को,
ना बंद करो तुम पिंजरों में।
हाथों में दो पोथी पन्ने
ना बाँधों चूड़ी गजरों में।।

वो क्या जाने रिश्ते नाते,
मन उनका गुड्डे गुड़िया बहलाते।
अफ़सोस मुझे अपने समाज पर,
जहाँ बाल विवाह रचाए जाते।।

शैलजा शर्मा - करौली (राजस्थान)

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