नानी मेरी...
लाती थी बाज़ार से
साड़ियाँ, चूड़ियाँ और लठवा सिंदूर।
अपनी बेटी के लिए।
आज वही बेटी!
जा रही है बाज़ार,
बे-रंग साड़ियाँ और
चाँदी के पोले गढ़वाने।
श्राद्ध के लिए।
कितना मुश्किल होगा वो क्षण
मेरी माँ के लिए!
विधवा माँ का चेहरा निहारना!
बाबा के श्राद्ध का अन्न खाना!
बड़ा कष्टदायी होता है।
पिता का जाना।।
रत्नप्रिया - अररिया (बिहार)