छवि (भाग ८) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

(८)
छवि है अनुपम कर्मभूमि की, अवलोकन कर लो ज़रा।
कर्मयोगियों से जगमग है, मनमोहिनी वसुंधरा।।
योगी रत हैं योग-ध्यान में, भोगी रत आसक्ति में।
साधु-संत जप-तप में रत हैं, भक्त लीन हैं भक्ति में।।

कृषक अन्न उपजाया करते, श्रम करते मज़दूर हैं।
माली सिंचन करते क्यारी, ज्ञानी फैलाते नूर हैं।।
गौ-सेवा करते गौ-पालक, गायक गाते गीत हैं।
गृह के काज गृहस्थी करते, प्रेमी करते प्रीत हैं।।

शिक्षक शिक्षण संस्थाओं में, ज्ञानदान हैं कर रहे।
विद्यार्थी नाना विषयों में, ज्ञानार्जन हैं कर रहें।
शासक चला रहे हैं शासन, सैनिक करते जंग हैं।
वैज्ञानिक नित नई खोज कर, करते जग को दंग हैं।।

कवि और लेखकों की टोली, सृजन-कर्म नित कर रहें।
कुशल चिकित्सक रोगी जन के, रोग-व्याधि नित हर रहें।।
कार्य-कुशल अभियंता सारे, कौशल निज दिखला रहे।
भिन्न प्रशिक्षक कला-क्षेत्र के, कला नित्य सिखला रहे।।

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

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