पथिक - कविता - सरिता श्रीवास्तव "श्री"

पथिक तुझे बढ़ते जाना है, 
रुक जाना तेरा काम नहीं।
राहों को ख़ुद ही रोशन कर,
डर जाना तेरा काम नहीं।

शूल हैं पथरीली पगडन्डी,
गिरना भी है उठना भी है।
रेतीला मरुथल मृगतृष्णा,
तुझे जीना है पीना भी है।

उत्साह का दीप जलाए रख,
मत आस लगा प्रभाकर की। 
जुगनू भी हैं राहे रोशन,
मत निहार डगर सुधाकर की।

सरिता कल कल बहती जाए,
कब पूछे गलियाँ सागर की।
तू भी संबल अपना ही बन,
मत छलका बूँदें गागर की।

मंज़िल को तो मिलना ही है,
स्वेद कण न कम पड़ने पाए।
श्रम वारि जहाँ पड़ जाती हैं,
वहीं से निर्झर झरते जाए।

नमकीन मोती तेरे मस्तक के,
मिल रश्मि से झिलमिल सतरंगी।
वसुधा सुरभित हो जाती है,
फुलवारी कुसुमित बहु रंगी।

पथ भटक ना जाना पथिक तू,
पथ बेशक तेरा ओझल हो।
परिश्रम "श्री" तेरा संबल है,
कोशिश कर क़दम न बोझिल हो।

सरिता श्रीवास्तव "श्री" - धौलपुर (राजस्थान)

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