बंदर-बाँट - सजल - संजय राजभर "समित"

नोंच-नोंच कर खा रहे हैं।
एक ही गीत गा रहे हैं।। 

देश रहे आबाद कैसे? 
बाँध पोटली जा रहे हैं।

सीवरों से ज़हर घोलकर,
नदियों पर बिल ला रहे हैं।

नारी बचाओ का नारा,
पर सब दहेज पा रहे हैं।

बंदर-बाँट में ठगा कृषक,
देख तसल्ली छा रहे हैं।

आज पंछियाँ जाए कहाँ?
जंगल काट गिरा रहे हैं।

पहले से ही तय नौकरी,
अहा! भर्तियाँ ला रहे हैं।

'समित' साहित्य अदब कैसे? 
सम्मान सहज पा रहे हैं।

संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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