खो रहा है - कविता - असीम चक्रवर्ती

सब कुछ है पास पास,
क़लम, चश्मा, डायरी, घड़ी,
मोबाइल, रेडियो, रिमोट,
मगर लगता है, कुछ खो रहा है।

खो रही नज़दिकियाँ,
दूर होती जा रही हैं
धीरे धीरे विलीन होती लहरों की तरह।
जैसे अथाह सागर में
डूबोया गया हो कंकड़,
ले जाती हैं लहरों को किनारे तक।

सब कुछ पास है
मगर खो रही है हँसी,
ढूँढने का प्रयास कर रहा हूँ
बंद कमरे की चार दीवारों के बीच
दूरदर्शन के पर्दे पर।
आ जाती हैं बार-बार
एक सी तस्वीरें
पालीथीन के झोले में 
आदमकद ढका हुआ।
नब्ज़ टटोलते हुए
किसी अनजान देह में।
जिसके चेहरे भी 
अच्छी तरह ढके है।
दोनों के बीच टहल रहा है 
सिर्फ़ एक मौन,
धरती के देवता मजबूर हैं
लाचार बेबस के पास।

बार-बार रिमोट के बटन 
खिसका देता हूँ
हँसी की खोज में
मगर हर बार शुन्य मिलता है।

लगता यूँ ही बीताना पड़ेगा समय 
खोई हुई स्वेदनाओ' को 
खोजते हुए।

असीम चक्रवर्ती - पूर्णिया (बिहार)

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