मददगार - कविता - आराधना प्रियदर्शनी

कितनी बेबसी महसूस होती है तब,
जब हम चाह कर भी किसी की मदद नहीं कर सकते,
काश किसी के ख़ुशी के ख़ातिर,
मर जाते जो मर सकते।

सोचो कैसा लगता होगा उनको,
जो ठंड में ठिठुरते रहते हैं,
बस सिसकियाँ होती होंगी वहाँ,
जो प्रचंड ठंड को सहते हैं।

कैसा लगता होगा उनको,
जो तपती धूप में जलते हैं,
पल मुश्किल के गिन गिन कर,
वह अंगारों पर चलते हैं।

कैसा लगता होगा उनको,
जो भीगते रहते बारिश में,
एक दिन छत होगा सर पर उनके भी,
हर पल जीते इसी ख़्वाहिश में।

कैसा लगता होगा उनको,
जिनका कोई अपना खो जाता है,
पास फिर वह आता नहीं,
वह दूर ही होता जाता है।

कैसा लगता होगा उनको,
विश्वास जिनका टूट जाता है,
बिखर के रह जाते हैं वह,
संसार से मन उठ जाता है।

देखकर छवि ईश्वर की,
तुम किसी पर विश्वास करो,
आँखों में छलकेगी तब भावनाए,
जब दर्द किसी का एहसास करो।

सुन सको जो ख़ामोशी को भी,
परोपकारी का वह साज़ बनो,
पीड़ित और ज़रूरतमंदों के लिए,
मदद करने वाला वह पहला हाथ बनो।

एक बार सहारा बनकर तो देखो,
किसी ग़रीब या बे-घर का,
इतना तो विश्वास है मेरा,
घर दूर नहीं फिर ईश्वर का।

बनना ही चाहते हो जीवन में तो,
नफ़रत नहीं तुम प्यार बनो,
इससे बड़ी मंज़िल क्या होगी कि तुम,
दुखियों के मददगार बनो।

आराधना प्रियदर्शनी - बेंगलुरु (कर्नाटक)

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