वक़्त चला जाएगा - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

वक़्त कैसा भी हो
भला कब ठहरा है?
अच्छे दिन, सुनहरे पल भी
आख़िर खिसक ही जाते हैं,
कठिन से कठिन समय भी
एक दिन चले ही जाते हैं।
माना की हालात गंभीर है
हर किसी में दहशत और
चेहरे पर ख़ौफ़ की लकीर है,
जान बचाने की चिंता है तो 
जीविका की लाचारी भी है।
पर ऐसा भी नहीं है कि 
ये सब स्थाई है,
सच तो यह है कि
हमारी आँखे खुल जाएँ,
क्योंकि
प्रकृति की आँखें भर आई हैं।
अब मानवों को 
जागने की ज़रूरत है,
कुदरत की व्यवस्था से
छेड़छाड़ की बजाय
सम्मान की ज़रूरत है।
हमनें भी तो प्रकति से
खूब खिलवाड़ किया है,
कुदरत की व्यवस्था का
जी भरकर उपहास किया है।
आज वक़्त ने करवट क्या बदला?
तो हमारी जान पर बन आई,
प्रकृति की पीड़ा हमें
कभी भी न समझ आई,
आज भी हम कहाँ समझते हैं?
अब भी तीसमार-खाँ ही बनते हैं।
सब कुछ देख सुन समझ रहे हैं
फिर भी सीनाजोरी में पीछे नहीं हैं।
अपनी तो आदत है आरोप लगाने की
हमसे होशियार भला कौन है?
अपनी ही जान की फ़िक्र 
भला कहाँ है?
अब भी समय है चेत जाएँ,
ख़ुद को ही नहीं औरों को भी
बचाने का उपाय अपनाएँ।
वक़्त मुश्किल ज़रूर है
पर ठहर नहीं पाएगा,
लेकिन हमारा घमंड
ज़रूर तोड़ जाएगा।
वक़्त के साथ कदमताल
करना सीख लीजिए,
मुश्किल हालात में भी 
जीना सीख लीजिए।
वक़्त तो वक्त के साथ ही
यूँ भी चला जाएगा,
वक़्त भला ठहर कर क्या पाएगा?
अच्छा है वक़्त की नज़ाकत 
समझ जाएँ हम सब,
वक़्त तो अपनी पहचान
छोड़ते हुए ही जाएगा,
वक़्त हमारी औक़ात तो 
हमें बता ही रहा,
चलते चलते कुछ खट्टे मीठे
अनुभव भी दे जाएगा, 
अपनी निशानी छोड़ ही जाएगा।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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