रंगीन बसंत - कविता - डाॅ. वाणी बरठाकुर "विभा"

अब चारों ओर 
महक रहा है 
आया रंगीन बसंत
बसंती टगर फूल 
खुश्बू हवा के संग 
गगन को चूम रहा
बरदैचिला बावली सी 
उड़ कर 
महकाती गई 
बिखेरकर नव सुगंध
पतझड़ के बाद 
डालियों पर 
बसंत की हरियाली 
गुलमोहर भी 
खिलकर मुस्कुराने लगी 
लेकर बैशाखी की 
स्नेह भरी मादकता।
गा रही कोयल, चकवा भी 
मधुर सरगम 
कहीं ढोल की ढमढम
पेपा भी गुनगुना रहा 
आतुर यौवन मन।
रंगीन अब ये धरा 
सज रही दुल्हन सी 
मेरी असमिया माँ 
अब समय है 
स्वागत नया साल का 
रंगाली बिहु संग है
ताल ताल पर 
नाचना और गाना।

डाॅ. वाणी बरठाकुर "विभा" - तेजपुर (असम)

Join Whatsapp Channel



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos