आधुनिक भाई - कविता - प्रवीन "पथिक"

देखता हूँ,
उन कृतघ्नों को,
गले में शराब की बोतल उड़ेलते,
भाग्य को सराहते,
खुशियाँ मना रहे हैं।
याद आता है वह दुर्दिन,
मरा था जब इनका दुश्मन (भाई)!
दिल में दर्द में छिपाए था;
हर पल लबों पे मुस्कान खिली थी,
पर, जीवन भर ग़म खाए था।
मर गया;
ये सोचकर, घबराते हुए,
क्रियाकरम की डोर से,
ख़ुद को फंदा लगा रहे हैं।
भरत की उपमा लिए, भाई
कंधा लगा रहे हैं।
जिसने ग़म सहकर भी;
इनको बढ़ाया था।
मंज़िल से उतरकर ही;
इनको चढ़ाया था।
बरस रहीं उसकी दो आँखें,
उन लम्हों को याद करते।
हँस रहे ये हो खड़े;
एक दूजे से बात करते।
किसी के कहने के डर से,
लोक लाज धँधा बढ़ा रहे हैं।
भरत की उपमा लिए, भाई
कँधा लगा रहे हैं।
जीवन पर्यन्त,
परिवार-उत्थान हेतु रत था।
समाज के,
विचारों से ये विरत था।
परिजनों को रोता देख,
कलेजा फट गया।
सोच रहे ये रास्ते का,
काँटा जो हट गया।
इसी खुशी को मानकर, सब
चंदा लगा रहे हैं।
भरत की उपमा लिए, भाई
कंधा लगा रहे हैं।
प्रकाश देकर सबको,
ख़ुद को अँधेरा कर गया।
ग़म-सागर में डूबकर,
इनको किनारा कर गया।
पश्चाताप की अग्नि,
सीने में जल रही है।
इसी विचार में मग्न हो,
आत्मा निकल रही है।
मानकर गंदा है, फिर भी,
गंदा लगा रहे हैं।
भरत की उपमा लिए, भाई
कंधा लगा रहे हैं।

प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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