मैं सदियों से भूखा हूँ,
आओ जरा हमारी बस्ती में,
झाँककर देखो गृहस्थी में।
कचराई आँखें हैं,
उम्मीदों को बाँधे हैं।
पिचके गाल, तन कमज़ोर,
बँधे हैं बेबसी के डोर।
शोषकों से सूखा हूँ,
मैं सदियों से भूखा हूँ।
क ख ग की ज्योति कोसों दूर थी हमसे,
साहित्य, विज्ञान, कला और राज विलग थी हमसे।
भूमिहीन होकर भी कृषक ही थे हम,
अन्नदाता बनकर भी भिखारी ही थे हम।
शीत लहर हो या जेठ की लू,
ताप सहना ही रहा हमारा पहलू।
हमारी झोपड़ी भी मुश्किल से बनते हैं,
उनके गौशालें भी संगमरमर से बनते हैं।
सिस्टम में दलित ही लिखा हूँ,
मैं सदियों से भूखा हूँ।।
संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)