अंतर्द्वंद में अस्फुट, सवालों का निरंतरअर्थ ढूँढती।
एक नारी कई रूपों में, अपना अस्तित्व ढूँढती।।
जीवन में कई रूपों का, विश्वसनीय मंचन करती।
पर उन बदलते स्वरूपों में, ख़ुद की हस्ती ढूँढती।।
बनी असीर आलयों से, खुल पंख फैलाना चाहती।
बन रह गई असासा, व्योम तले असु लेना चाहती।।
कुछ पाया, कुछ पाना है, भावना हरदम उमड़ती।
इस अंतर्द्वंद में बसी स्मृतियां उथल-पुथल करती।।
स्वनिर्मित घेरे में ख़ुद, कुछ इस कदर घिरी होती।
कभी हँसी, कभी दुखी, कभी निज आश्वस्त होती।।
रमणी बन इस जहां में, आकुल आक्रंद है छिपाती।
अंतर्द्वंद की छिपी सच्चाई को आरमण बन दिखाती।।
कर्तव्यों में निज आकांक्षा छोड़ अडिग खड़ी रहती।
अपनों के ख़ातिर, कभी-कभी असूझ बनी रहती।।
सुनीता मुखर्जी - गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)