सफ़र-ए-ज़िन्दगी - कविता - तेज देवांगन

ज़िंदगी के सफ़र में,
मैं कुछ तो खोता जा रहा हूँ,
मंज़िले पाकर भी,
अपनों से दूर होता जा रहा हूँ।

जितनी कदम बढ़ाए, उतनी बड़ी मनोरथ,
उतनी मिली सोहरथ,
इन सोहरथे चाह में,
मै ख़ुद से दूर होता जा रहा हूँ।
ज़िंदगी के सफ़र में,
मै कुछ तो खोता जा रहा हूँ।

ताल की बुलबुलों की तरह हो गई है ज़िंदगी मेरी,
आगे बढ कर भी, खुद को खोता जा रहा हूँ।
पत्थरों से बन रही आशियाना मेरा,
शांत हिलोरों की तरह रोता जा रहा हूँ।
ज़िंदगी की सफ़र में, मै कुछ तो खोता जा रहा हूँ।

नई उमंग मन मे तरंग बना रही।
नया दौर आता जा रहा, 
पुरानी याद मिटाती जा रही।
सीढ़ी चढ़ कर भी,
ना जाने, मै क्यूँ पीछे होता जा रहा हूँ।
ज़िंदगी की सफ़र में, मै कुछ तो खोता जा रहा हूँ।

तेज देवांगन - महासमुन्द (छत्तीसगढ़)

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