स्वामी विवेकानंद : आज भी प्रासंगिक - आलेख - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

साल 1886। श्री श्री रामकृष्ण परमहंस देव इहलोक से विदा लेने से पूर्व अपने प्रिय शिष्य नरेन्द्रनाथ दत्त को अपने पास बुलाकर बोले- 'नरेन, मैं अतिशीघ्र देहत्याग करनेवाला हूँ। मेरे भक्तों को मैंने तुम्हारे भरोसे रख छोड़ा क्योंकि उनमें तुम सबसे बुद्धिमान हो। तुम उन्हें सही राह दिखलाना।'
'जी गुरुदेव' - नरेन धीमे से कहा।
इसके बाद नरेंद्रनाथ ने श्री श्री रामकृष्ण परमहंस देव जी से दीक्षा ग्रहण कर गेरुआ वसन धारण कर स्वामी विवेकानंद बने।

अपने गुरु के प्रति असीम निष्ठा रखने वाले स्वामी विवेकानंद जी उस काल के धर्मीय विभेद को लेकर श्री रामकृष्ण परमहंस जी के ललाट पर उभरे चिंता की रेखाओं का स्पष्ट अवलोकन किया था। उन्होंने अपने गुरु द्वारा हर धर्म को आत्मसात करने के साथ धर्म समन्वय वाणी प्रचार करते देखा था।
स्वामी जी ने इस दिशा में गम्भीर चिंतन किया और लोगों को धर्म की वास्तविकता से परिचित करवाने का दृढ़ निश्चय किया।

16 अगस्त 1886 ई. को रात 1 बजकर 2 मिनट में गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस देव महासमाधि में लीन हुए और नरेन्द्रनाथ ने अपना कर्ममय जीवन शुरू किया।
हिन्दुधर्म का संस्कार और पुनरुद्धार हेतु उन्होनें सन्यासी वेश में सर्वप्रथम सारे भारत में भ्रमण किया और अनेकों शिष्य बनाए।

साल 1893 में अमेरिका के शिकागो शहर में आयोजित विश्व धर्म महासम्मेलन में स्वामी विवेकानंद ने भारत का प्रतिनिधित्व किया और अपने ज्ञान तथा शब्दों द्वारा पूरे विश्व में हिंदु धर्म के विषय में लोगों का नजरिया बदलते हुए अध्यात्म ज्ञान तथा वेदांत से परिचित कराया।

उन्होनें समाज में फैली कट्टरता तथा सांप्रदायिकता को रोकने के लिए मानवजाति को आगे आने का आह्वान किया क्योंकि उन्हें विश्वास था कि बिना सौहार्द तथा भाईचारे के विश्व तथा मानवता का पूर्ण विकास संभव नही है।

स्वामीजी कहते थे- हमारे इन्द्रिय समूह चाहें जो कोई वस्तु को ग्रहण करें हर दृष्टिकोण में हमसब दो परस्पर शक्तियों की क्रिया और प्रतिक्रिया देख सकते हैं जो सर्वदा एक-दूसरे के विरुद्ध काम कर रहा है और इसी के फलस्वरूप कई वस्तुओं  के प्रति हमारा आकर्षण पैदा हो जाता है और कई वस्तुओं से हम दूरी बनाए रखना चाहते हैं।

हम कई बार यह अनुभव करते हैं कि विशेष कोई कारण बिना कोई व्यक्ति हमें बहुत अच्छा लगने लगता है तो कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी व्यक्ति को देखते ही हमारे मन में उसके प्रति विद्वेष उत्पन्न हो जाता है। ऐसा सभी के साथ होता है।
इन दो शक्तियों का कार्यक्षेत्र चाहें कितना ही उच्चतर हो लेकिन इन विपरीत शक्तिद्वय का प्रभाव उतना ही तीव्र और स्पष्ट होता है।

हमारे धर्म जगत में इन दो परस्पर विरोधी शक्तियाँ सर्वाधिक परिलक्षित होती है। धर्म ही मानव को प्रेम करना सिखलाता है और धर्म ही मानव को घृणा का पाठ पढ़ाता है। यह संसार किसी काल में शांतिवाणी श्रवण किया है यह बात धर्माधिकारियों के ही मुँह से ही उच्चारित हुई है तो यह संसार किसी काल में घोर निंदा और अभिशाप श्रवण किया है ऐसी बातें भी धर्माधिकारियों के द्वारा ही बतलाई गई है।

एक ओर जहाँ धर्म के लिए मानव संसार में लहु बहाने से भी नहीं चूकते हैं वहीं धर्म से प्रेरित होकर मानव चिकित्सालय, अनाथालय आदि प्रतिष्ठित करते हैं। कहने का मतलब धर्म के प्रभाव से मानव इतना निष्ठुर बन सकता है जो किसी अन्य से नहीं और धर्म के ही प्रभाव से ही मानव इतना कोमल बन सकता है जो अन्य किसी कारण से नहीं। ऐसा अतीत में भी हुआ है, वर्तमान में भी हो रहा है और भविष्य में भी होगा।

संसार में शांति समन्वय करना बहुत कठिन काम है। हम सब बचपन से प्रेम, शांति, धर्म, मैत्री, भ्रातृत्व आदि बहुतेरे बातें सुनते हैं और तोते की तरह रटते रहते हैं।जिन महापुरुषों ने सर्वप्रथम उनके हृदय में इन तत्वों की उपलब्धी की थी उन्होंने ही इन शब्दों की रचना की थी और वे इनके अर्थ भी समझते थे।

ऐसा देखा जाता है कि सर्वजन परिचित प्रत्येक धर्म में तीन प्रमुख विभाग होते हैं।
पहला विभाग दार्शनिक जिसमें धर्म की विषय वस्तु,
दूसरा पौराणिक विभाग जिसके अंतर्गत दर्शन को स्थूल रूप प्रदान किया गया है
और तीसरे विभाग अनुष्ठानिक भाग जिसमें पूजन पद्धति आदि निहित है।

इनमें कोई धर्म दार्शनिक विभाग पर अधिक जोर देता है तो कोई धर्म पौराणिक विभाग में या फिर कोई धर्म आनुष्ठानिक विभाग पर। मगर खेद की बात है कि दर्शन की वास्तविक  जानकारी के बगैर प्रत्येक धर्मावलम्बी उनके निज मतवाद उपस्थित करके उसे ही परम सत्य मानने की ज़िद करते हैं। इसी तरह के विविध सोच-विचार मानव को धर्मांध बना देते हैं और धर्मान्धता धीरे-धीरे सम्पूर्ण समाज को कवलित कर लेती है। मानव को उन्मादी बना देती है। अज्ञ जन धर्म-धर्म कहकर चिल्लाते हैं मगर धर्म की वास्तविकता से कोसों दूर रहते हैं और सार्वजनीन भातृभाव का सम्पर्क स्थापित करने के लिए ऊँची आवाज में प्रचार-प्रसार करते हैं। विविध दल गठन करते हैं।ऐसे लोग शरदकालीन बादल की तरह होते हैं जिनके गर्जन काफी तेज होती है मगर पृथ्वी की सतह पर जल बरसाकर पृथ्वी की प्यास बुझाने की क्षमता उनमें नहीं होती मगर जो धर्म के वास्तविक ज्ञाता होते हैं वे बरसात की बादलों की तरह नीरव रहकर पृथ्वी पर बरसते हैं। न तो वे भातृभाव का प्रचार करते हैं और न ही विविध दल गठन करते हैं।उनके क्रिया-कलापों और उनकी गतिविधियों की ओर ध्यान दिया जाए तो हम पाते हैं कि उनके हृदय सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए प्रेम से परिपूर्ण होता है।

हमें बरसाती बादलों की भाँति बनने की जरूरत है। क्या सभी मानव बरसाती बादल बन सकते हैं? कदापि नहीं।
हर मानव रंग-रूप, बुद्धि-विवेक, शारीरिक शक्ति आदि में पृथक है।हम मानव जाति में कोई नर है तो कोई नारी,कोई गौरवर्ण है तो कोई कृष्णवर्ण।मानवजाति के हिसाब से हम सभी एक हैं मगर जब बात मेरे और तुम्हारे की हो जाती है तो हम पृथक नजर आते हैं। जाति के हिसाब से नर और नारी पृथक हैं लेकिन मानव के हिसाब से दोनों एक हैं।

मानव अन्य जीव-जंतुओं से पृथक है किन्तु अगर प्राणी की दृष्टि से देखें तो नर-नारी, जीव-जंतु, वनस्पति सभी समान हैं। इसी वैचित्रमय भिन्नता के बीच जगत प्रपंच का चरम एकत्व है-ईश्वर। ईश्वर के दरबार में हम सभी एक हैं लेकिन हममें विविधता है। तो फिर हम कैसे आशा कर सकते हैं कि हमारा धर्म एक हो? 

सच कहा जाए तो विविधता में ही एकता निहित है। यही सृष्टि का नियम है और यही जीवन का मूल आधार है। यदि विविधता न हो तो हमारा विनाश अवश्यम्भावी है। ऐसा होना भी नहीं चाहिए। यदि ऐसा हो जाए तो जीवन की गतिशीलता खत्म हो जाएगी, हमारी चिन्तन शक्ति नष्ट हो जाएगी और हम बुत की तरह एक-दूसरे को निहारते रह जाएंगे। इसलिए हमारी विविधता, हम मानवों में व्यप्त साम्यभावहीनता हमारी उन्नति का द्योतक है। यही हमारी चिंतन शक्ति का जन्मदाता है। यह संसार सदा इसी तरह चलता रहेगा। बस! हमें जरूरत है तो केवल हम विभिन्न धर्मावलम्बी मिलकर ही एकता की शक्ति पैदा करें।

एकता की शक्ति पैदा करने के लिए हमें बैनर लेकर चलने की आवश्यकता नहीं और न ही दल गठन कर बैठकें करने की। बस! मन में एक ही सोच रखनी है कि अपनी जन्मभूमि को मातृवत पूजे क्योंकि हम सभी एक माँ के सन्तान हैं। हमारी माँ एक है तो हम पृथक कैसे हो सकते हैं? हमारा धर्म, जाति और सम्प्रदाय पृथक हो सकता है लेकिन अगर हमारी माँ पर किसी तरह की थोड़ी सी भी आँच आए तो हम उसे बर्दाश्त कैसे कर सकते हैं भला?चाहें हम विविध धर्म, जाति और सम्प्रदाय के हैं लेकिन आपसी प्रेम, भातृत्व और सौहार्द बनाकर माँ की चरम ताकत बन सकते हैं।

हम मानव हैं। हममें बुराइयाँ भी व्यप्त होना स्वाभाविक है लेकिन हम कोशिश करें कि धीरे-धीरे खुद में व्यप्त बुराइयों कम हों। इसके लिए हम प्रत्येक को चाहिए कि हम जहाँ हैं वहाँ से ऊपर उठें।

यह सच है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ही सभी धर्मों के केन्द्रस्वरूप हैं और हम सभी को वृत के भिन्न व्यासार्ध से उसी केंद्र की ओर अग्रसर होकर अंततः एक हो जाना है।
यह काम हमें स्वयं करना है। इसके लिए हमें किसी शिक्षक की जरूरत नहीं। जिस तरह एक पेड़ स्वयं बढ़ता है। हम मानव समय-समय पर उसकी सिंचन या देखरेख करते हैं मात्र। एकदिन पेड़ स्वयं बड़ा हो जाता है। हमें भी उसी तरह स्वयं बढ़ना है तभी हमारा जीवन सार्थक कहलाएगा।

आज न तो श्री रामकृष्ण परमहंस देव हमारे बीच हैं और न ही स्वामी विवेकानंद मगर देश की परिस्थिति वही है या हम कह सकते हैं कि पहले की अपेक्षा बद से बदतर हो गई है। इस हालत में स्वामी जी के विचार प्रासंगिक है।

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

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