मैंने जो देखा - कविता - दीपक राही

मैंने कच्चे घरों को टूटते देखा,
आँसुओं को ज़मीन पर टपकते हुए देखा,
तन्हाइयों से ख़ुद को लड़ते हुए देखा,
लहरों को किनारों से मिलते हुए देख,
कांच के शीशों को,
पत्थरों से टूटते हुए देखा,
मैंने मज़लूमो को,
ज़ालिमों से लड़ते हुए देखा,
रिश्तो को पल भर में बिखरते हुए देखा,
अपनों को जुदा होते हुए देखा,
प्यार को नफ़रत में बदलते हुए देखा,
मोहब्बत को बदनाम होते हुए देखा,
तारों को आसमान से टूटते हुए देखा,
भक्तों को रब से रूठते हुए देखा,
बादलों के पीछे छिपे चाँद को देखा,
मैंने जन्नत को जहान में बदलते देखा,
अपने आप को जलाकर,
दूसरों के लिए जीते हुए लोगों को देखा,
उस काली रात में ख़ुद को डरते हुए देखा,
मैंने जब भी देखा ज़िंदगी को आगे बढ़ते ही देखा।

दीपक राही - जम्मू कश्मीर

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