माँ - कविता - प्रतिभा त्रिपाठी

माँ में है मिश्री सी मिठास,
उससे है जीने की आस।
वो है अपनेपन का अहसास,
है हर रिश्ते में ख़ास।

कभी बनना पड़ता है उसे,
कड़वी दवा।
कभी गर्म तो,
कभी ठंडी हवा।

क्योंकि हर पल उसको है,
परवाह तुम्हारी।
अपना सुख छोड़,
मिटाती है तक़लीफ़ हमारी।

तू है, तपती धूप में,
ठंडी छांव सी।
डूबते को लगे,
नदिया में नाव सी।

कैसे भूल सकता है,
कोई माँ के स्नेह को।
जैसे नहीं भूलता,
गरमी में बरसते मेह को।

हर सवाल का,
जवाब है तू।
हर अच्छे बुरे का,
हिसाब है तू।

तुझमें में है अल्लाह,
तुझमें है भगवान।
तेरे अहसानों को,
कैसे भूल सकता है इंसान।

प्रतिभा त्रिपाठी - झांसी (मध्य प्रदेश)

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