कुरीतियाँ - कविता - तेज देवांगन

कितनी वहम, कितनी कुरीतियाँ है।
कुछ हमारे पुरखो से,
तो कुछ हमने बनाई रीतियाँ है,
है क्या ये आसमाँ तू, 
तुझमे छिपे कुछ राज तो कुछ मिथिया है,
कितनी वहम, कितनी कुरीतियाँ है।
खगोल की बात तो आज जानी,
पहली दफा जाना सप्त ऋषि यों कि कहानी।
हैं ध्रुव तारा, सबसे चमकीला तारा नही,
राशियों का भविष्य से, कोई किनारा नहीं।
ये तो वहम और कृतियाँ है।
कुछ ना मांग टूटते तारों से,
कोई चाह ना, उल्का की फुहारों से,
ये कुछ बिखरें कण, 
तो कुछ धूल की भृत्यां है,
कितनी वहम, कितनी कुरीतियाँ है।
जितना झाकेगा आसमाँ में तू,
होगा रू-ब-रू सच जी हाँ तू,
न फसेगा इन भविष्य कारों से,
शुभ मुहूर्त और चाटुकारों से।
तब ना होगी कोई छल, 
कोई कुरीतियाँ रे,
कितनी वहम, कितनी कुरीतियाँ है।

तेज देवांगन - महासमुन्द (छत्तीसगढ़)

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