पनिहारी - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

नयन लजाये 
लचकत जाये 
पनघट की 
पनिहारी। 
आँचल ढाये 
लट बिखराये 
सिर पे घूँघट 
भारी। 
प्यासे की प्यास बुझाओ 
घट से दो बाते कर लो 
ओ सजनी मत जाओ। 
सुकोमल ग्रीवा 
लोकिट में बन्दी पाये। 
अरुण कली के कर्ण में 
झुमका झूमत जायें। 
केसर साड़ी 
रंग जमाये 
पवनियाँ आँचल 
करत उघारी। 
नयन लजाये लचकत जायें पनघट की पनिहारी। 
नूतन पैरो की
जिस माहुर ले अंगडाई
पाँव चलत झलकत गगरी
कित नयना कित मगरी
बिछुआ गाये
पायल गये
है यौवन की मारी
नयन लजाये लचकत जाये पनघट की पनिहारी।
बहियाँ हिलाये
कंगना बजाये
प्रीतम निरमोही
पास न आये।
घूंघटा के छोर से
उंगली हटाये।
वो खड़े डगर में
मेरा मदन जगाये
दो नयन मिलन के लाने
साजन मोरे में
साजन की
हो अति प्यारी।
नयन लजाये लचकत जाये पनघट की पनिहारी।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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