एक चीख - कविता - अवनीत कौर

एक चीख
दिल दहला गई
जो अनसुनी सी थी
कानों को नहीं सुनी
दिल के किसी कोने से निकली थी
वो एक चीख।


ये चीख थी
उन एहसासों की
जो दम लेने से पहले ही मर गए थे
बहुत भयावह थी
वो एक चीख।


एक चीख
जो गूंजती है सोए जागे
मनमस्तक में
ये चीख है उन सवालों की
उन जज्बातों की,उन उम्मीदों की
जो न सुलझी, न मिटी, न
टूटी, न ख़तम हुई
वो चीख थी हर उन ख़यालों की।


एक चीख
जो बेआबरू हो मर गई
वो चीख
लाखो आबरू को
बेआबारू करती रही
वो घुट रही है, पल पल मर रही है
हाँ, ये उन्हीं चीखो का ही शोर है
वो चीख कर भी न चीख सकी।


अवनीत कौर "दीपाली सोढ़ी" - गुवाहाटी (असम)


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