खामोशियाँ - कविता - संजय राजभर "समित"

हाथ-पाँव दोनों बँधे थे
लगभग दस फीट ऊपर एक डाल पर
शोभा लटक रही थी
चमचमाता चेहरा
खुली आँखें
मानो बोल पड़ेगी
नीचे जमीन पर
मात्र छः महीने का बच्चा पड़ा था
कुछ भी हलचल नही
कान और मुँह से खून के धब्बे
आह!
कैसे दर्दनाक!!


वाह रे! निष्ठुर इंसान
पूरे गाँव में खामोशियाँ छा गई
ग्राम प्रधान
पुलिस, वकील, व्यवसायी
पत्रकार
बूढ़े जवान बच्चे
सभी को साँप सूँघ गया।


दूसरे दिन
चाय की चुश्कियों के साथ
लोग पढ़ रहे थे
बदचलन लड़की आत्महत्या कर ली।
कसूर क्या था
अपने शरीर को
अपने सगे मामा को छूने नही दी
बस!


आज बाहुबलियों के चंगुल में
कहीं न कहीं
हमारा देश है।


संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)


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