मर गयी है इंसानियत - कविता - विजय कुमार निश्चल

मर गयी है इंसानियत
फैल रही है हैवानियत
मासूम बच्चियों से बलात्कार
खो रही है आदमियत

बेटियाँ घर से
बाहर निकलते डरती है
जैसे तैसे वहशी बुरी
नज़रो से संभलती है
पर मन में लिये है व्यथा 
किस पे करे भरोसा
मन ही मन इंसानो में 
इंसानियत परखती है!!

पर कही खा ना जाये 
किसी इंसानी दरिन्दें से 
धोखा तो हर इंसानों में 
हैवानियत देखती हैं 
कसूर नहीं उनका कि
अब इंसानों की कमी है 
जग में
वो अपेक्षाओ की 
नज़रो से देखती है !!

आखिर ये 
कहां से आये हैं असमाजिक तत्व?
आखिर क्यो नहीं हैं इनमें संस्कार?
क्या वे नारियों से नहीं जन्में है ? 
क्या बेटियों से खाली हैं 
उनके घर परिवार?

बेटियों के मन में 
उठे सवालों के जवाब
समाज में 
कौन देगा जनाब?
खाप पंचायतों के
सरपंच या 
समाज के झूठे ठेकेदार या
धर्मगुरू, गुरू, 
मुल्ला मौलवी या
साधु संत संयासी
या सियासी या
कानून, प्रशासन, अदालत या
समाज की 
लघुतम ईकाई परिवार 
पर जवाबदेही तो लेनी होगी 
अन्याय का 
कौन लेगा पक्ष 
और कौन रहेगा विपक्ष में 
सारा सार 
सारा समाधान 
छिपा है
इस प्रश्न यक्ष में।

विजय कुमार निश्चल - गुड़गांव (हरियाणा)

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