विजय कुमार निश्चल - गुड़गांव (हरियाणा)
मर गयी है इंसानियत - कविता - विजय कुमार निश्चल
बुधवार, नवंबर 11, 2020
मर गयी है इंसानियत
फैल रही है हैवानियत
मासूम बच्चियों से बलात्कार
खो रही है आदमियत
बेटियाँ घर से
बाहर निकलते डरती है
जैसे तैसे वहशी बुरी
नज़रो से संभलती है
पर मन में लिये है व्यथा
किस पे करे भरोसा
मन ही मन इंसानो में
इंसानियत परखती है!!
पर कही खा ना जाये
किसी इंसानी दरिन्दें से
धोखा तो हर इंसानों में
हैवानियत देखती हैं
कसूर नहीं उनका कि
अब इंसानों की कमी है
जग में
वो अपेक्षाओ की
नज़रो से देखती है !!
आखिर ये
कहां से आये हैं असमाजिक तत्व?
आखिर क्यो नहीं हैं इनमें संस्कार?
क्या वे नारियों से नहीं जन्में है ?
क्या बेटियों से खाली हैं
उनके घर परिवार?
बेटियों के मन में
उठे सवालों के जवाब
समाज में
कौन देगा जनाब?
खाप पंचायतों के
सरपंच या
समाज के झूठे ठेकेदार या
धर्मगुरू, गुरू,
मुल्ला मौलवी या
साधु संत संयासी
या सियासी या
कानून, प्रशासन, अदालत या
समाज की
लघुतम ईकाई परिवार
पर जवाबदेही तो लेनी होगी
अन्याय का
कौन लेगा पक्ष
और कौन रहेगा विपक्ष में
सारा सार
सारा समाधान
छिपा है
इस प्रश्न यक्ष में।
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