माटी का घर - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

याद आता है माटी का वो घर 
जिसमें हमारा बचपन बीता।
मोटी मोटी दीवारों वाला
वो खपरैल का घर
उसी माटी वाले घर में
हम पले, बढ़े, खेले कूदे और आज
शहर वासी बन शान बघारते हैं।
उन दिनों बिजली गाँवो से दूर थी
फिर भी हम खुश थे
उस माटी के घर में,
अपने भरे पूरे परिवार के साथ।
बड़ा सा घर, बड़ा सा आंगन
बाहरी हिस्से में
आज का बरामदा कहिए
होता था दालान।
डर भी लगता था
साँप बिच्छू का भय
हमेशा बना रहता था।
वारिश का कष्ट दायी समय भी
अपने घर में
सूकून का अहसास कराता था।
आज तो कंक्रीटों का जाल है
तब वो माटी का घर
कितना सूकून देता था,
नई पीढ़ी उस सूकून से
अपनेपन का अहसास 
कहाँ कर पायेगी,
पक्के मकान भी
खुशी का वो अहसास
कभी नहीं दे पायेगी।
माटी के घर की खुशबू
अब कहाँ मिल पायेगी?
माटी के घर की कहानी
अब इतिहास में ही रह जायेगी।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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