शब-ए-ग़म - कविता - कानाराम पारीक "कल्याण"

मुझसे रूठकर तुम यूँ चले गये,
मानो तन को जिंदा लाश बना गये।
सारी तमन्नाएं मेरी दफ़न हो गयी,
मेरी क़िस्मत शब-ए-ग़म बन गयी।

दिल की धड़कनें मैं सुनाऊँ किसे?
दिल-ए-हाल मैं बताऊँ   किसे?
मानो मेरे तन से  भाप निकल रही,
मेरी क़िस्मत शब-ए-ग़म बन गयी।

कंपकंपाती ठंड में भी तपन बहुत,
मानो अंगीठी की अंगार बन गयी।
दिल-ए-दाह गर्म रजाई बन रही,
मेरी क़िस्मत शब-ए-ग़म बन गयी।

सिमट गया सार चैन-ओ-अमन,
उजड़ गया मेरा संवरा हुआ चमन।
मानो मेरे दिल पर आरी चल गयी,
मेरी क़िस्मत शब-ए-ग़म बन गयी।

कानाराम पारीक "कल्याण" - साँचौर, जालोर (राजस्थान)

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