देखो कलियुग कालिमा, फैला है व्यभिचार।
निशिदिन मरती बेटियाँ, लाचारी सरकार।।१।।
लव ज़िहाद के नाम पर, परिवर्तन नित धर्म।
फाँस रहे मासूम को, प्यार नाम दुष्कर्म।।२।।
भोली भाली बेटियाँ, फँसती झूठा प्यार।
बेच रही निज अस्मिता, धोखा हत्या हार।।३।।
अद्भुत है निर्लज्जता, असंवेदित भाव।
पागलपन हिंसक प्रकृति, खल कामी दे घाव।।४।।
मति विवेक चिन्तन विरत, पशुता है आचार।
निर्भय हैं वे मौत से, आदत से लाचार।।५।।
शासन से निर्भीत हो, भाव दनुज शैतान।
नोच रहे हैं बेटियाँ, गिद्ध श्वान हैवान।।६।।
सुसंस्कार सन्तान को, भूला जन दायित्व।
भौतिकता मदमत्त जन, खोया निज अस्तित्व।।७।।
स्थापित परिणय प्रथा, संस्कार निर्दिष्ट।
रक्षित थी नारी सुता, था चरित्र उत्कृष्ट।।८।।
अनुशासन की है कमी, विरत नार्य संकोच।
यौवन के मधुशाल में, बदली बेटी सोच।।९।
शिक्षा का मतलब नहीं, हो स्वभाव उद्दण्ड।
प्रेम जाल में फँस रही ,आहत जोश प्रचण्ड।।१०।
बचे तभी ये बेटियाँ, हो शिक्षण परिवार।
नीति रीति सम्प्रीति की, स्थापित शिक्षाचार।।११।।
असहनीय कानून बने, मिले सजा अपराध।
दुष्कर्मी रूहें कँपे, हो बेटी निर्बाध।।१२।।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली