कोरोना का काल बनने दें - ग़ज़ल - कर्मवीर सिरोवा

तन्हाई को लगी हैं उम्र तो लगने दें,
जिंदा रहना हैं तो घर पर रहने दें।

जिसने बेचा हैं ईमान दूकानदारी में,
लानतें आयेगी, अभी कमाई बढ़ने दे।

मय्यतों में अभी बाक़ी हैं चंद साँसे,
अभी मरा नहीं वो, मुतलक़ मरने दें।

बज़्म में मोहब्बत उदास हो आई हैं,
गर याद करता हैं साक़ी तो करने दें।

भूखा मर रहा हैं पड़ौसी तो हमें क्या,
मिरे घर पर हैं राशन बहुत, पकने दें।

किसानों को फ़सलों से मिली राहतें,
मज़दूरों को मुफ़लिसी में सड़ने दें।

झूठों के हुजूम में सच्चा भी रोड़ पर,
गेहूँ के साथ घुन पिसा हैं, दलने दें।

तेरी गली से रोज गुज़रता था कभू,
अभी तिरी उल्फ़त को तौबा कहने दें।

ईलाही भी तिरा दर चूमने आयेगा,
मुफ़लिस के शानों पर हाथ रखने दे।

लॉकडाउन की सूरतें दोनों ही आई,
रस्ता और नहीं, जो चल रहा हैं चलने दें।

ऐसा न हो ग़रीबी बिलखें भूख से,
कर्मवीर को कोरोना का काल बनने दें। 

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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