सेवा करो आदमी की - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

एक अजीबो
गरीब वाकया है
कि कई लोग
आँखों के होते
हुए भी
अन्धे बनते है
विवेक के
होते हुए
लोग चेतना
शून्य है
जीवन के
होते हुए भी
लोग निर्जीव
से हेत जताते है।
क्या पत्थर
तुम्हारे प्रेम की
अथक
श्रद्धा की
अनुभूति
पहचान पायेगा।
पूछो उनसे जो
वर्षो से
लगे है भक्ति में
तन मन
और अपना
पेट काटकर
धन अर्पण
किया हो जिन्होंने
क्या वह
मूर्ति तुम्हारे
त्याग की सराहना कर
पायेगी।
क्या वह
अपनत्व जताकर
तुम्हारे छिपे
दुख को
निकालकर
सान्तवना दे पायेगी?
शायद
नही........।
तो फिर वे समझदार
वन यह सब
सहन क्यों
करते हैं
आदमी ही
मात्र एक ऐसा
जीव है
जो यह
पूछने की
हिम्मत रखता
है कि
भाई क्यों खिन्न हो?
और अपने
सायो में
शरण दें
तुम्हारे आंसू
पौछ सकता हैं
और तुम्हारे ढेर
सारे अवसाद
समेट कर
ढेर सारी
खुशिया उड़ेल
सकता हैं ?
आदमी
कभी निराशावादी
नही बनाता
सच मानिये
पत्थर की
तरह निष्ठुर
नही होता आदमी।
इसलिए
भाई सुबह का
खोया शाम
को आये
खोया हुआ
नही माना जाता
तुम भी जी भरकर
अपनत्व जताओं
और सेवा
करो
निर्जीव की नहीं
अपने आस-पास
जीते जागते
आदमी की।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)


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