कब तक ज़ुल्म सहेगी बेटी - कविता - आशाराम मीणा

पूछ रही हैं घर की बाला, बापू एक उलाहना है।
मिटे अंधेरा जग का सारा, ऐसा दीप जलाना है।।
बेटा बेटी समकोटीय, सबको यह बतलाना है।
मरे खोख में अपनी लाडो, ये कैसा अफसाना है।।।
पूछ रही हैं घर की बाला, बापू एक उलाहना है।।।।

नर नारी की एक महिमा, जननी एक समाना है।
क्यों अंतर ऐसा छोड़ दिया, तू नर है वो जनाना हैं।
सेवा माता पिता करती, पर घर में आशियाना हैं।।
मरे खोख में अपनी, लाडो ये कैसा अफसाना है।।।
पूछ रही हैं घर की बाला, बापू एक उलाहना है।।।।

तीनों लोक की जननी को, फिर क्यों पछतावा हैं।
जननी जन सी बनी नहीं है, कैसा गैर जमाना हैं।।
सिर काट कर देवे अपना, ये इतिहास दोहराना है।
मरे खोख में अपनी लाडो ये कैसा अफसाना है।।।
पूछ रही हैं घर की बाला, बापू एक उलाहना है।।।।

ना पूजो मन्दिर में मुझे, न घर का धन हथियाना है।
जीवन जीने की चाहत, मन को यह समझाना है।
रणभूमी में लव चुन्नर से, सिंदूरी मांग भरवाना हैं।।
मरे खोख में अपनी लाडो ये कैसा अफसाना है।।।
पूछ रही हैं घर की बाला, बापू एक उलाहना है।।।।

शिक्षा संस्कार की देकर, नव समाज बनाना हैं।
लिंग का फरक नहीं होगा, ऐसा नवाचार लाना हैं।।
अवसर मिले नारी को, मन में विश्वास जगाना हैं।।
मरे खोख में अपनी लाडो ये कैसा अफसाना है।।।
पूछ रही हैं घर की बाला, बापू एक उलाहना है।।।।

आशाराम मीणा - कोटा (राजस्थान)

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