सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)
प्रकृति - कविता - सुधीर श्रीवास्तव
सोमवार, अक्तूबर 19, 2020
प्रकृति की भी अजब माया है
निःस्वार्थ बाँटती है
भेद नहीं करती है,
बस कभी कभी
हमारी उदंडता पर
क्रोधित हो जाती है।
हर जीव जंतु पशु पक्षी के लिए
खाने, रहने और उसकी जरूरतों का
हरदम ख्याल रखती है
बिना किसी भेदभाव के
यथा समय सबकुछ तो देती है,
हमें प्रेरित भी करती
सीख भी देती है,
कितना कुछ करती है,
क्या क्या सहती है
परंतु आज्ञाकारी प्रकृति
हमें देती ही जाती है,
हम ही नासमझ बने रहें
तो प्रकृति की क्या गल्ती है?
वो तो बस!
अपना संतुलन बनाए रखती है।
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