रुबरु - कविता - मास्टर भूताराम जाखल

ऐ इन्सान हो तू जरा सत्य से रुबरु,
सत्य ही सत्य है जो बचाए आबरू।
झूठ प्रपंच पाखंड से रह सदा दुर,
ना कर तू अंधविश्वास को मजबूर।

ऐ नर तू हो मानवीय गुणों से रुबरु,
ताकि बच जाये अमानवीय आबरू।
कभी ना कर संग तू ऐ इन्सान कुसंग,
छोड़ दे नर तू जरा जातिवादी बेढंग।।

कभी ना हो तू गलत लोगों से रुबरु,
गलत लोग ही लुटते हैं कहीं आबरू।
दुर्जन लोग ही सदा नुकसान करते हैं,
सज्जन लोग तो रुबरु आबरू से डरते हैं।

कहे लेखनी से सदा कवि भूताराम,
रुबरु हो सदा सद्गुणों से अवाम।
ना मिटाये किसी की कभी आबरू,
ऐसा ना हो वाकया किसी का रुबरु।।

मास्टर भूताराम जाखल - सांचोर, जालोर (राजस्थान)

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