कैसे समझते हैं खुद को पुरुष - कविता - उमाशंकर राव "उरेंदु"

खेत में काम करती हुई 
अकेली लड़की 
एकांत में पड़ी लड़की हो या
शौच को निकली लड़की,या फिर
बाग बगीचे में  दिखनेवाली लड़की को देखकर
कैसे करते हैं बलात्कार 
उनका शिकार अपनी हबस के लिए?
क्या इतना कमजोर हो गया है पुरुषार्थ हमारा? 
कि अकेली लड़की पाते ही पिघलने लगते हैं हम
और कैसे तत्क्षण हमारे अंदर कोबरा का जहर
उफनने लगता मांसल काया देखकर,
उस समय भूल जाते हैं हम
कि संयमशीलता ही पुरुषार्थ है।

फिर यह उनका कहना
कि लड़कियाँ क्यों निकलती हैं बाहर अकेली
क्यों पहनती हैं  बिकनी, जींस-पैंट
क्यों करती हैं अपनी काया का प्रदर्शन? 
फिर हम कोसते हैं उनके माँ-बाप को
कि उन्होंने शील नहीं दिया अपनी बेटी को
यह कहकर हम पुरुष
एक और बलात्कार की ओर बढते हैं निःशंक।
उन्हें नहीं मालूम 
कि बलात्कार होने की पंक्तियों में 
खड़ी हैं उनकी बेटियाँ 
उन्हें नहीं मालूम यह भी
कि पोर्न देखकर स्व-गत सुख पाने के बजाय
हम अपनी हबस का प्रयोगशाला बना रहे हैं 
या अपने ही बहू-बेटियाँ और
अपने ही घर की स्त्रियों को कर रहें है बलात्कार 
यह पौरुषता की आत्महत्या ही है।
कोई भी लड़की 
दलित नहीं होती
न होती है अगड़ी-पिछड़ी।
पर मोम की तरह तुरंत गर्मी से पिघल जाना
एकांत पाकर स्खलित होना,
हम समझते हैं कि पुरुषार्थ की
सांस्कृतिक अवधारणा उसे दबोचना है।
दरअसल यहीं से नपुसंकता की शुरूआत होती है
कापुरुष के अंदर
और हम लड़की, माँ-बाप, सरकारी-तंत्र को
दोषी ठहराकर रोज ढकेलते हैं
अपनी ही बेटियों और स्त्रियों को 
बलात्कार जैसे कोबरा के मुँह में 
खुद को पुरुष समझकर।

उमाशंकर राव "उरेंदु" - देवघर बैद्यनाथधाम (झारखंड)

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