दस्तक - कविता - दीपक राही

सवाल देते है दस्तक, 
ज़हन में मेरे,
देश के विकास के,
बढ़ते हुए भ्रष्टाचार पे,
जातिगत उत्पीड़न के,
बढ़ते हुए जुल्मात पे,
जेलों में जकड़े हुए
राजनीतिक कैदियों पे,
ज़हनत करता हूँ,
उन्हें उठाने की,
ना मिलने पर,
बैठ जाता हूँ कहीं,
किसी कोने में,
इसी चौराहे में,
गलियों में,
हाथों में बैनर लिए,
मुट्ठीयों को हवा में
लहराते हुए,
मैं पूछता हूं लोगों से,
समय की सरकारों से,
मोन पड़ी दीवारों,
बीच किसी सड़क पे,
उठा देता हूँ,
उन सवालों को जो देते हैं,
दस्तक मेरे ज़हन में,
क्या इन सवालों का जवाब,
आपके पास है,
बस कह दिया जाता है
आपके सवाल ही देश विरोधी है,
फिर उठा लिया जाता हूँ,
खाकी वर्दी वालों से,
डाल दिया जाता हूँ, 
किसी कोटरी में हैं,
उन सवालों के साथ,
जब उनसे पूछता हूँ, 
तो कहते हैं,
तुम और तुम्हारे सवालों का 
यही आखरी मुकाम है। 

दीपक राही - जम्मू कश्मीर

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