आँखें - कविता - कपिलदेव आर्य

तेरी काली-काली आँखें,
प्यार भरी मतवाली आँखें!
इन आँखों में झूमा सावन,
बरसे जब मदवाली आँखें!

देखी जब से भोली आँखें,
डूब गया जब खोली आँखें!
घड़ी बिछड़ने की जब आई,
चुप-चुपके फिर रो ली आँखें!

हेत हिलोरे इन आँखों में,
प्रीत भरी ज्यूं प्यारी आँखें!
सारे जग का प्यार समा ले,
ऐसी न्यारी-न्यारी आँखें!

विरह वेदना सहती आँखें,
दुख झंझट हर लेती आँखें!
आंच पड़े तो फट पड़ती हैं,
बिन बोल सब कहती आँखें!

लोक-लाज से डरती आँखें,
बस, साजन पे मरती आँखें!
चूमकर पलकें नज़र उतारे,
काला जादू करती आँखें!

साथ समर्पण साथी आँखें,
पीकर आंसू प्यासी आँखें!
बिरहा में ये भर-भर आए,
मोह की मारी दासी आँखें!

पल में दिल का हाल सुनाती,
पल में ही खो जाती आँखे!
कभी शरम से झुक जाती हैं,
और कभी नाच नचाती आँखे!

इन आँखों में सादापन है,
थोड़ी सी मक्कारी आँखे!
कभी क्रोध से लाल हुए तो,
बैर निकाले काली आँखे!


कपिलदेव आर्य - मण्डावा कस्बा, झुंझणूं (राजस्थान)

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