तू याद बहुत आई - कविता - शेखर कुमार रंजन

आज तुम बहुत,
याद आ रही हो
याद हैं न पूछे थे,
कहाँ जा रही हो 
तू सही न बताई,
खता क्या हुई थी
मोहब्बत हुई थी,
तुम्हें भी मुझे भी
मैंने ही कहा था तू तो,
कह भी न पाई थी
किसने ये मोहब्बत की आग,
दोतरफा लगाई थी
डर दोनों के बीच,
बराबर समाई थी
मैंने तो कबूला तू तो,
कबूल भी न पाई थी
मोहब्बत अंधा होता हैं यह,
तब समझ आई थी
प्यार और जंग में सब जायज,
यह सौ फीसदी सत्य, बुझाई थी
चली तू गई अपनी,
जीवन बनाने को
अकेला छोड़ गई,
इस वीराने जमाने में
किसी से भी हो सकता हैं,
सच्चा प्यार जमाने में
मैं लगा रहा बस नई,
संबंध बनाने में,
तू लगी रही झूठे,
संबंध बचाने में
पता चला वर्षों बाद,
तुम्हारें ठिकाने का
इंतजार करता रहा मैं,
बस तेरे आने का
वर्षों बाद बात हुई तुमसे,
खुशी का रहा न ठिकाना
बात क्या-क्या करूँ,
खोजता रहा मैं बहाना
तुम डरी ऎसी कि,
याद आया तुम्हें मामा
अगले दिन माँ ने तेरी,
खड़ी-खोटी मुझे सुनाई,
मुझे डाँट कर अपनी, 
वे गुस्सा बुझाई
मन कर रहा था कि,
करू मैं भी लड़ाई
फिर सोचा रहने दो,
एक दिन खुद ही कर देगी,
तेरी माँ मुझसे सगाई
खुशी-खुशी तेरी,
कर देगी बिदाई
ये मोहब्बत भी मुझसे,
ना जाने क्या क्या कराई।

शेखर कुमार रंजन - बेलसंड, सीतामढ़ी (बिहार)

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