मानिनी - कविता - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

मदमाती     गुनगुनाती  अभिलाष   मन,
माननी    बन   रागिनी    रही  रात  भर।
अति    चपला  इठलाती  अनुराग   मन,
रागिनी    सजन   खोयी  रही  रात भर।
सोलह    शृंगार  सजी   लजाती  सनम,
सजन   मन  रागिनी   जागती रात भर।
देख   सजन  सहसा निज चुराती नयन, 
साजन   उलहन  देती   रही   रात  भर।
मनहर  प्रिय  पास  में  मुस्काती   अधर,
प्रिय  मधुश्रावण  छायी रही    रात भर। 
प्रियतम  सहलाती   पीकर  सुहाग  रस,
मृगनयनी     निहारती   रही   रात  भर।
मानिनी खुशियाँ   लुटाती  साजन    पर,
कुसमित पराग कण बिखेरती रात भर।
सुहासिनी  सकुचाती अभिसार   बलम,
सजन   बाहों   में  पड़ी  रही   रात भर।
मोहनी   भरमाती    प्रीत     नशा   नैन,
मादक  मधुशाल  मत्त   रही   रात भर।

डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली

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